त्याग और बलिदान के दावों के बावजूद यहूदी कभी गरीब नहीं रहे ।

त्याग और बलिदान के दावों के बावजूद यहूदी कभी गरीब नहीं रहे ।                                                                                                                                           





इस तथ्य की ओर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि त्याग और बलिदान के दावों के बावजूद यहूदी कभी गरीब नहीं रहे । वे अपना घर भरना बहुत अच्छी तरह से जानते थे । उनकी उदारता की तुलना गोबर की खाद से की जाती है,  जिसे केवल उससे पिंड छुड़ाने के लिए खेतों में नहीं डाला जाता बल्कि उत्पाद की दृष्टि से भी ऐसा करना आवश्यक होता है । यहूदियों ने भी अधिक कमाने के लिए थोड़े का त्याग किया । परिणाम यह हुआ कि अल्पकाल में ही दुनिया इस भ्रम को शिकार हो गई कि यहूदी उदार,  परोपकारी और दानी बन गए हैं। 
यहूदियों ने इधर दयालुता का ढोंग किया और उधर देश की अर्थ व्यवस्था को जर्जर करना जारी रखा। उन्होंने विभिन्न राष्ट्रीय संस्थानों में स्टाॅक खरीदे और राष्ट्रीय उत्पादन में अपना प्रभाव बढ़ाया। उन्होंने स्टाॅक एक्सचेंज को खरीद - फरोक्त की दुकान बना दिया और प्रतिभूति ( सिक्योरिटी) के उस आधार को नष्ट कर दिया,  जिस पर निजी स्वामित्व की स्थापना होती हैं । इन यहूदियों के उद्योगों में प्रवेश करने से ही नियोक्ता और कर्मचारी के मध्य अज़नबीपन की प्रवृति जागी,  जो आगे चलकर राजनीतिक स्तर पर वर्ग  - संघर्ष का आधार बनी।


अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए यहूदियों ने अपनी सारी शक्ति अपने विकास में रोड़ा बने जातीय और नागरिक भेदभाव को समाप्त करने में लगा दी । इस ध्येय के लिए उन्होंने बड़ी और विशिष्ट चतुराई से धार्मिक सहिष्णुता का ढोंग रचा। गुप्त संसद,  जो अब पूरी तरह उनके हाथ में थी,  का मंच उन्हें एक हथियार के रूप में प्राप्त हो गया । उन्होंने अपने उद्देश्य के लिए उसका व्यापक प्रयोग किया ।  यहूदियों द्वारा गुप्त रुप संसदीय जाल में फंसाए अनेक सरकारी, राजनीतिक तथा व्यापारिक क्षेत्रों के बुर्जुआ ( उच्च वर्ग) उनकी योजनाओं का शिकार बन गए,  हालांकि उन सदस्यों को स्वयं रंचमात्र भी ज्ञात नही था कि असलियत में क्या हो रहा था । केवल जनसाधारण ही,  जो अपनी शक्ति के बारे में धीरे - धीरे जागरूक हो रहा था और अपने अधिकारों का उपयोग करने लगा था,  अभी तक यहूदी की पकड़ से बचा हुआ था । यहूदियों ने अनुभव किया कि प्रजा को शासक के पास पहुंचने के लिए किसी - न- किसी माध्यम की आवश्यकता पड़ती है और यह माध्यम तभी बन सकता है,  जब बुर्जुआ ( उच्च वर्गों ) में उनकी गहरी पैठ हो। अर्थात गुप्त संसद को छोड़कर अन्य हथियार ढूंढे। यह दूसरा साधन प्रेस था । यहूदियों ने उसे नियंत्रण में लाने के लिए चतुराई से सभी तरीकों का उपयोग किया । प्रेस की सहायता से वे धीरे - धीरे आम जीवन पर पूरी तरह अपना नियंत्रण रखने में सफल हो गए । अब वे अपने तय उद्देश्यों की आस के लिए जर्मन जन- जीवन को अपनी इच्छा अनुकूल हांकने लगे,  क्योंकि अब वे लोकमत को अपनी कामना के अनुसार बनाने - बिगाड़ने की स्थिति में थे ।


जिस कार्य से उन्हें (यहूदी) कोई लाभ होता नही दिखता था,  वे  मनोरंजन की वस्तु बताकर उसका घोर विरोध करते थे और यथार्थ एवं समग्र संस्कृति को विकृत बताकर उससे घृणा करते थे । वे दूसरों के अनुभव से जो भी ज्ञान प्राप्त करते थे,  उसे पूरी तरह अपनी जाति की सेवा में प्रयोग करते थे ।
वे  कभी - कभी अपनी निष्पक्षता के प्रदर्शन के लिए किसी प्रभावशाली ईसाई महिला को सदस्या बनाने का प्रस्ताव रखते थे,  किन्तु मूल रूप से वे अपनी जाति के पुरुषों को दूसरी जाति के स्त्रियों की छाया से भी हमेशा दूर रखते थे । वे दूसरों के खून में विष घोलते थे,  परंतु अपने खून हमेशा शुद्ध रखने का पूरा प्रयत्न करते थे ।


किसी ईसाई लड़की से यहूदी अपवाद रुप से ही विवाह करते हैं । हाँ,  इसके विपरीत ईसाई पुरुष यहूदी लड़कियों को पत्नी के रुप में अवश्य स्वीकार करते हैं । इस प्रकार के जोड़ों से उत्पन्न संकर संतान अपने आपको हमेशा यहूदी घोषित करती है । इस प्रकार आर्य जनों का पूर्णतया ह्नास होता है । यहूदियों को इस तथ्य की भली- भाँति जानकारी है और वे बड़े योजनाबद्ध ढंग से विरोधी जाति के बुद्धिजीवियों को निरस्त करते रहे हैं । अपनी चतुराई पर पर्दा डालने और अपने शिकारों को मूर्ख बनाने के लिए वे जाति और रंग के भेदभाव की उपेक्षा करते हुए इंसानों की बराबरी की चर्चा करते हैं । आमतौर पर लोग उनकी ईमानदारी पर विश्वास करने की गलती कर जाते है ।





 





 

 

 

 

 

 

 

 

 






 


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